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सांस्कृतिक >> मुरदा घर

मुरदा घर

जगदम्बा प्रसाद दीक्षित

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2784
आईएसबीएन :81-7119-453-2

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सामाजिक विसंगतियों और विषमताओं का यथार्थपूर्ण चित्रण.....

Murda-ghar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मुरदा-घर सामाजिक विसंगतियों और विषमताओं का यथार्थपूर्ण चित्रण है। वर्तमान अर्थव्यवस्था के गाँवों के उजड़ने की प्रक्रिया जैसे-जैसे तेज होती गयी, महानगरों में गंदी बस्तियों और झोपड़-पट्टियों या जुग्गी-झोपड़ियों का उतना ही विस्तार हो गया। इन बस्तियों में मानव जीवन का जो रूप विकसित हुआ है। वह काफी विकृत और अमानवीय है। वेश्या-वृति और अपराध-कर्म का यहाँ विशेष रूप से विकास हुआ। मुरदा-घर में झोपड़-पट्टी की वेश्याओं की दयनीय स्थिति का शक्तिशाली चित्रण है। विद्रूप यथार्थ मुरदा-घर के केंद्र में जरूर है, लेकिन उपन्यास की मुख्य धारा करुणा और संवेदना की है। विकृत से विकृत स्थितियों से गुजरते हुए भी उपन्यास के पात्र नितान्त मानवीय और संवेदनशील हैं।

मुरदा- घर में वर्तमान राज्य-तन्त्र के आमानवीय रूप को भी उकेरा गया है। पुलिस स्टेशन, हवालात, कचहरी वगैरा का जो रूप सामने आया है, काफी अमानवीय और नृशंस है।
मुरदा-घर आज ही हमारी पूरी व्यवस्था पर एक प्रश्न-चिन्ह है। जैसा कि एक आलोचक ने कहा है, ‘मुरदा-घर आधुनिक हिन्दी उपन्यासों की दुनिया में एक चुनौती है। इसका सामना करना आसान नहीं है।’


1


कचरे का पुराना ढेर और एक पागल आदमी.....घूम-घूमकर ढूँढ़ता रहता है कुछ....कभी नहीं मिलता।
डूबती हुई शाम निकल गई दूर। क़तार.....बरतनों की...बहुत लंबी। नल.....भीड़ में खोए बच्चे की तरह रोता हुआ...।

तेज़ हवा का झोंका....तेज़ बदबू। कोढ़ी...गली उँगलियोंवाला.....दोनों हथेलियों में दबाकर कुछ खाने की कोशिश करता है। एक लँगड़ी कुतिया चाटती जाती है खुजली की चमड़ी को। निकल जाते हैं सामने से सूअरों के पिल्ले। कचरे के ढेर पर जली हुईं सिगरेटें....जूठन....आवारा लड़के। ढूँढ़ता जाता है पागल आदमी....कुछ नहीं मिलता।
दुखता है एक ज़ख्म और रिसता जाता है। फिर कट गया कोई रेल की पटरियों पर। आदमी या जानवर.....कोई फ़र्क़ नहीं। मँडरा रहे हैं कौवे...कुत्ते। गटर के पास....एक पागल औरत और एक पागल दुनिया.....चीख़ रहे हैं दोनों। मैनाबाई...खाँसी के बाद सड़क पर फेंका गया बलग़म। बीमार औरत...रंडी। देती जाती हैं गालियाँ....मर्द को..बच्चे को.....सारी दुनिया को। फैलता जाता है अँधेरा।

मालूम नहीं कहाँ.....किस जगह....तोड़ दिए गए झोपड़ें। मालूम हैं सिर्फ़ इतना कि एक पीली सुबह....जब सोने वालों ने आँखे खोलीं.....गंदी बस्तियों को घेर लिया नीली वर्दी ने चारों तरफ़ से। लंबे बेंत और डंडे। नीली गाड़ियाँ। ख़ाकी वर्दियाँ और अफ़सर। सुना दिया गया हुक्म। तोड़ दिए गए झोपड़ें। पीली रोशनी में नंगी हो गई एक दुनिया। कालिख लगे बरतन...मैली पतीलियाँ.....गुदड़ियाँ.....रोते हुए बच्चे.....।
झोपड़ें वाले वहाँ से आ गए यहाँ। आ गईं रंडियाँ भी। बन गए झोंपड़े...एक के बाद एक....इस तरफ़। चौड़ी सड़क। दूसरी तरफ़ ऊँची इमारतों की लंबी क़तार। तैरती है सफ़ेद रोशनी हर वक़्त। उस साफ़ दुनिया के पास पैदा हो गई नई दुनिया....।

बस-स्टॉप पर खड़े-खड़े थक गई मैनाबाई। कोई गुज़रा नहीं। शाम को पच्चीस पैसे थे पास। एक गजरा ख़रीद....लगा लिया बालों में। हड्डियों के काले ढाँचे पर मोगरे के फूलों का गजरा...काली चमड़ी पर सफ़ेद कोढ़। खड़ी रही बड़ी देर....सड़क के किनारे....स्टेशन के सामने....बस-स्टॉप पर। नहीं गुज़रा कोई। गजरा मोगरे का...मुरझा गया।
मैनाबाई चलती है धीरे-धीरे। चलती जाती है। मोटे पाइप के पीछे चल रहे हैं दारू के गिलास। किस्तय्या खड़ा है काँच का गंदा गिलास लिये।..पैसे एक हाथ पर रखो....दूसरे हाथ में गिलास....वहीं ख़ाली। पहला आदमी वापस...चलो दूसरा। मिट्टी के तेल की ढिबरी के सामने तली मछलियाँ...सिंका कवाब...पकौड़ों से बहता तेल।...चलो दूसरा...।

रात और भी ज़्यादा काली। न सोना अच्छा, न जागना। बैठी हैं सिर पर हाथ रखे बनी-ठनी रंडियाँ। अब कोई नहीं गुज़रता इन रास्तों से। आ जाती हैं दूसरी सुबह....रात के बाद। हर सुबह...हर शाम....एक ही सवाल....कैसे जले चूल्हा ? ऊँची इमारतों की साफ़ सड़कें दूसरी तरफ़....सफ़ेद रोशनी की खिड़कियाँ....हवाओं पर तैरते गीत...गूँजते हुए ठहाके....।

उन साफ़ रँगी हुईं दीवारों के नीचे खड़े होने पर पट जाता है कोई-न-कोई...कार का ड्राइवर...भागा हुआ नौकर....घर से दूर रहनेवाला रसोइया। इधर....चारों तरफ़ खारे पानी का कीचड़...बदबू....मज़दूर....कुछ नहीं मिलता।
परेशान हो गए सफ़ेद रोशनी वाले।....ये आवारा औरतें बदबू और अँधेरे ले आती हैं दूसरी तरफ़ से। रोको इन्हें ! सरकार...पुलिस...क्या करते हैं सब ! रहना मुश्किल शरीफ़ लोगों का।

डाँट ऊपर से नीचे फिसलती चली गई। टिक गई सबसे छोटे अफसर पर। झुँझला गया...बौखला गया....।....मारो डंडे इन छिनालों को....तोड़ दो टँगड़ियाँ सालियों की.....ख़बरदार जो पैर रखा इस तरफ़....।
चलते हैं डंडे हदलदारों के। भागती हैं रंडियाँ....लथपथ। पुरानी धोतियाँ फट-फट जाती हैं पैरों में उलझ। रुकना पड़ता है....भागना पड़ता है....दम तोड़कर। सिर्फ़ पसीना और ज़ोर-ज़ोर से चलती साँसें। पीछे रह जाती है बशीरन। बढ़ती उम्र....थकता जिस्म। हाथ पकड़ लेता है....सिपाही। सड़...सड़। गिर जाती है ज़मीन पर। पकड़ लेती है पैर।...नहीं, नहीं ! अब नहीं। फिर नहीं आएगी इधर। माफ़ कर दो। तुम्हारे बच्चों की खैर ! अल्ला से दुआ करेगी। रहम...।

मगर रहम नहीं करता सिपाही। घसीटता है....ले जाता है हवलदार के पास। कहाँ गई बाँकी रंड़ियाँ...मालूम नहीं। रेल की हद तक दौड़कर लौट आए सिपाही। खड़ी है बशीरन, और रो रही है। चिल्लाता है हवलदार....हिच्या आईला..न्या साहेबाँ समोर। .....और सिगरेट और चाय...दारू-भट्ठीवालों की....।
मगर छोड़ दी जाती है बशीरन। उम्र में ज्यादा होते जाने का फ़ायदा...।
अँधेरा हो गया....फिर भी ढूँढ़ता जाता है पागल आदमी। ...अब सबकुछ बदल गया। बदबू और पसीनेवाली रंडियाँ....अँधेरे में डूबी काली चमड़ी पर थोपती हैं ढेर-सा पाउडर।
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इसकी माँ की....ले जाओ साहब के सामने।

होठों पर लाल रंग। मगर सूख जाते हैं गजरे। दूसरा किनारा...बहुत दूर कुछ बाक़ी नहीं रहा अब। इस तरफ़ भटको। थक जाओ। बैठ जाओं अँधेरे कोनों में। देखो उस किनारे की रोशनी को जो बहुत सफ़ेद मगर बहुत दूर। हारी हुई रंडियाँ देखती हैं उस रोशनी को। देती हैं गालियाँ एक-दूसरे को। नूरन...बशीरन...हीराबाई...मैनाबाई....शान्ति....पारबती...सब दे रही हैं गालियाँ....एक-दूसरे को।....क्या पाऊँ भर लेऊँ ! धंदे के वास्ते नईं मजे के वास्ते दुसरों का धंदा मारना....इसका मुरदा निकले....!
मोटे पाइप के पास आड़ में खड़ी मैनाबाई। गिलास पर गिलास...किस्तय्या की दारू। दोनों जेबें भर गई पैसे से। मैना बहुत बेचैन।....दे ना रे ! एक नौटाक और दे दे। सच्ची बोलती...कल तेरे कू सारा पइसा दे जाऊँगी। इतना भरोसा नईं क्या मेरा ?

नहीं हैं भरोसा किस्तय्या को। चिल्लाता है....तू भागती है कि नईं इधर से ? कितना टैम बोला...धंदा का टैम इदर नहीं आना बोलके। अभी क्या मँगता तेरे कू ? एक नौटाक दिया ना ! नईं...दूसरा नहीं देगा हम। उधारी का धंधा नईं माँगता मेरे कू। पीछे का पइसा लेके आ....तब बात करना मेरे से...।
चारों तरफ़ काली रेत ढोने वाले क़ुलियों की भीड़। मुड़कर गिड़गिड़ती है मैना....अरे कोई बोलू रे इसकू....एक नौटाक और दे देंगा। भोत तलब लगा मेरे कू...।

किस्तय्या परेशान। दूसरी तरफ़ ख़त्म हो गई क़ुलियों की। धंधे का टाइम। अभी नहीं कमाएगा तो कब ? फिर चिल्लाता है...मादरचोद ! तेरे कू कोन बोला इधर आने का वास्ते ! अभी एक नौटाक और देता है हम। पन अभी तू इधर दिखना नईं। दिखी तो उठाके दरियां में फेंक देंगा....सच्ची बोलता....।

गिलास झटपट ले लेती है मैनाबाई। गटगटाती है और रुकती है...और गटागट जाती है एक साथ। गुज़र जाती है ऊपर-नीचे एक जलती हुई सलाख़। आँखों के सामने एक झिलमिलाती दुनिया....हो जाती है इधर से उधर। काली रेत के हँसते हुए मज़दूर....पहुँच जाते हैं कहीं दूर। आवाज़ें...जो नज़दीक थीं....अचानक पुकारती हैं दूर से। चलती है मैना....और लड़खड़ा जाती है। सवेरे खाया था पाव....पी काली चाय। तब कुछ नहीं मिला। गुज़री दो जलती सलाखें सब ख़त्म हो गया। टूट रहा था जिस्म। उबासियों पर उबासियाँ। जोड़ों और घुटनों में दर्द। अब नहीं। नसों में बहने लगी चिनगारियाँ। गाती है ऊँची आवाज़ में। गजरा...कहाँ गया। टूटा-टूटा गजरा..आधी रात के टाइम।...हाथ में ले लेती है। और हँसती है। ...हो गई आधी राऽत अब घर जाने दो....।

आधी रात के टाइम...सामने बैठी हैं रंडियाँ खामोश। बस-स्टॉप की दीवार से टिककर सो रही हैं जैसे। नफ़रत...हर रंडी को हर रंडी से...क्योंकि अपने-आप से।
.....बशीरन की बच्ची....छिनाल ! कितने खा गई और कितने खाएँगी। येइच है रंडी....सारा धंधा चौपट कर दिया। आगे-आगे नाचती हैं हमेशा। आग लगे इसके थोबड़े में । क्यूँ री छिनाल.....अभी नईं हुई तेरी आग थंडी ? और पकड़ लोगोन कू दौड़-दौड़के। सबका चूल्हा बंद कर दिया साली ने। मुरदी...राँड़ !

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शराब का नाप।
मगर चुप रहती है बशीरन। कुछ बोलती जाती है नूरन। उबासियाँ लेती है पारबती। मैना नहीं होती ख़ामोश। बीच सड़क पर चीखती जाती है ज़ोर-ज़ोर।....हरामजादी ! अइसी भोली बन गई है अब कि कुछ जानती नईं। देख-देख लेऊँगी तेरे कू एक दिन। नईं देखी तो अपने बाप की अउलाद नईं....।
मूछों पर ताँव देती है मैना। बोलना बंद कर देती है नूरन। बोलती है बशीरन। ....देख ले पारबती ! समझा दे इसकू। भोत पावर चढ़ रया है। अच्छा नईं होगा। पीछू मत बोलना मेरे कू।
अब बढ़ जाता है मैना का गुस्सा। आ जाती है एकदम पास।....ए गाड़ू की अउलाद ! मेरे से बात कर। उसकू क्या बोलती !
लेकिन बशीरन नहीं देखती उसकी तरफ़....देखती जाती है नूरन को।...देख आपा...बोल दे इसकू।....फिर छेड़ी जाती मेरी ! गुस्सा आ गया मेरे कू तो बुरा हो जाएँगा।

पर नहीं रुकेगी मैनाबाई। बूँद-बूँद एक ज़हर जमा होता रहता है सूखी रगों पर। रास्ता ढूंढ़ता है। नहीं मिलता। गरम लोहे की चिनगारियाँ जब गुज़र जाती हैं...अचानक खुल जाते हैं रास्ते। पिघलकर बहने लगता है ज़िन्दगी का ज़हर। नहीं रुकता। रास्ते का पत्थर....अपना आदमी....सब कुछ जलाकर ख़त्म कर देना चाहता है।
-बशीरन ! साली कुत्ती की अउलाद ! आपा-आपा क्या बोलती ! मेरे से बात कर। नईं जाती थी तू दौड़-दौड़के उधर ? बाबू डिरैवर मेरे कने आता था तो तू कायकू मरती थी बीच में ? बोल छिनाल ! कायकू आती थी ? मैं कभी आई क्या तेरे बीच में ? जभी शेरू मेरे को पाँच रूपिया देता था ....तू कायकी तयार हुई दो रूपिया में ? बोल ना ! अभी दे ना जवाब ! लगाऊँ तेरे थोबड़े पे चप्पल ?

चप्पल  नहीं है पैर में। नंगे पाँव। अब बढ़ता जाता है गुस्सा बशीरन का। फिर भी रोक लेती है। बढ़ती उम्र में भी ज्यादा बढ़ती थकान।
- जा री ! बड़ी आई चप्पल मारने वाली ! सूरत देख अपनी। साली खुद तो दूसरोन का धंदा मारती। हजार बार बोली तेरे कू....अपने छोकरे कू मत लाया कर साथ में। कायकू लाती फिर ? छोकरे कू साथ में लेकर धंधा करने कू निकलती ....फिर दूसरे का नाम लगाती ! शेरू पाँच रुपिया देता था तो बाबू कू कायकू बैठाई थी एक रुपिया में ? बोल ना अब। बड़ी आई ! इसको पाँच रुपिया देता था शेरू। झूटी कहाँ की....!

बात बढ़ चुकी है। जाग-जागकर आ रहे हैं करीब फुटपाथ के सोने वाले। सरकते आ रहे हैं इधर दारू पीने वाले कुली। चिल्लाती है मैना हौ ! लेके आती मैं अपने छोकरे कू। हजार बार लाऊँगी। तेरी माँ ने दूध पिलाया है तो रोक मेरे कू। जब देखो साली मेरे छोकरे कू बोलती। तेरी माँ की ....! नईं-नईं...पारबती तू छोड़ मेरे कू। आज बताती मैं इसकू सारा मजा। छोड़ दे मेरे कू। साली सड़ी !

झपटकर पकड़ लेती है बशीरन के बाल। रोकती हैं नूरन...पारबती....शांती। नहीं रुकती। कर लेगी आज सारा फैसला। निकाल लेगी सब दिनों की कसर। खींचकर मारती है एक थप्पड़.....दूसरा....तीसरा। लिपट जाती है बशीरन। दोनों ज़मीन पर। बशीरन ऊपर।...छिनाल ये मत समझना कि डर जाऊँगी तेरे से। हरामजादी ! तेरी माँ की...! आग लगाऊँगी तेरे थोबड़े में। साली ! और ले....और ले...और ले....! अब बोलेगी मेरे कू !

हटाने की कोशिश करती है नूरन। मैना आ गई ऊपर।...तू मेरे कू...मेरे कू मारेंगी ? ये ले...और ले। और मारेंगी ? कमीनचोट ! भंगी की अउलाद ! मादरचोद ! जान ले लेऊँगी तेरी। फाँसी हो जाएँगी मेरे कू....परवा नईं। छोड़ दे..... छोड़ दे मेरे कू नूरन। मैं बोलती छोड़ दे....नईं तो ठीक नहीं होगा...।

   

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